मुंबई, 6 मई, (न्यूज़ हेल्पलाइन)। उम्र कैद की सजा को लेकर चल रहे तमाम भ्रमों पर विराम लगाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने साफ किया कि आजीवन कारावास का मतलब है दोषी को उसकी अंतिम सांस तक सजा मिलेगी। इसकी समय सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती है। दरअसल, कई मामलों में उम्र कैद की सजा मिलने पर इसे 14 साल की जेल की सजा मान लिया जाता है। इस पर कोर्ट ने कहा कि हत्या की सजा अधिकतम मृत्युदंड और न्यूनतम उम्रकैद है, इसे कम नहीं किया जा सकता है। जस्टिस सुनीता अग्रवाल और जस्टिस सुभाष चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने यह फैसला हत्या के दोषियों की उम्र कैद की सजा कम करने की याचिका पर सुनाया है।
कोर्ट का तर्क -
हाईकोर्ट ने कहा कि इस मामले में न्यायालय का संबंध आईपीसी की धारा-302 से है। यह कोर्ट को आजीवन कारावास या मृत्युदंड देने का अधिकार देती है। हत्या के अपराध के लिए न्यूनतम सजा आजीवन कारावास और अधिकतम मृत्युदंड है। ऐसे में कोर्ट कानून द्वारा अधिकृत न्यूनतम सजा को कम नहीं कर सकता है। हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि जहां तक सजा मे छूट देने का प्रश्न है। यह राज्य सरकार का विवेकाधिकार है कि वह जेल में कम से कम 14 साल की सजा काटने के बाद आजीवन कारावास की सजा में छूट दे। यह देखते हुए कि अपीलकर्ता कल्लू 20- 21 साल तक जेल में सजा काट चुका है। अदालत ने जेल अधिकारियों के लिए उसकी रिहाई की स्थिति का आकलन करने और राज्य अधिकारियों को इसकी सिफारिश करने की छूट दी है। हाईकोर्ट ने निचली अदालत द्वारा दिए गए दोष सिद्ध के खिलाफ फूल सिंह व अन्य की अपीलें खारिज कर दीं। क्योंकि, अपीलार्थी फूल सिंह और कल्लू पहले से ही जेल में हैं। इसलिए उनके संबंध में कोई आदेश नहीं दिया गया। हालांकि, संबंधित अदालत को हरि उर्फ हरीश चंद्र और चरण नाम के अपीलकर्ताओं को हिरासत में लेने और शेष सजा काटने के लिए जेल भेजने का निर्देश दिया है।
सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट शाश्वत आनंद ने कहा कि -
उम्र कैद को लेकर काफी समय से कन्फ्यूजन रहा है। बहुत लोगों को यह लगता है कि 14 साल या 20 साल पूरे होने पर उम्रकैद खत्म हो जाती है। ऐसे मामले सुप्रीम कोर्ट के सामने आ चुके हैं, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार यह दोहराया है कि उम्र कैद का मतलब कैदी की आखिरी सांस तक कैद है ना कि 14 साल या 20 साल में रिहाई है। बहुत ही संगीन मामलों में ज्यादातर उम्र कैद दिया जाता है। ज्यादातर दुनिया के देश और यूनाइटेड नेशंस सजा-ए-मौत को सही नहीं मानते और उम्रकैद ही दिया जाता है। भारत में सजा-ए-मौत सिर्फ रेयर ऑफ द रेयरेस्ट केसेस में ही देते।
कब का मामला -
दरअसल,1997 में हुई हत्या के इस मामले में महोबा की निचली अदालत ने 5 दोषियों को उम्र कैद की सजा सुनाई थी। महोबा के इस मामले में इलाहाबाद कोर्ट के समक्ष तर्क दिया गया कि पांच दोषियों में से एक का नाम कल्लू है। वह पहले ही लगभग 20-21 साल जेल में काट चुका है। उसकी सजा की अवधि को देखते हुए उसकी उम्र कैद की सजा कम करके उसे रिहा किया जा सकता है। इस तर्क पर कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह उचित नहीं है। कोर्ट आजीवन कारावास की अवधि को कुछ सालों के लिए निर्धारित नहीं कर सकता है। कानूनी स्थिति यह है कि आजीवन कारावास की अवधि किसी व्यक्ति के प्राकृतिक जीवन (अंतिम सांस) तक होती है। हत्या के 5 आरोपियों द्वारा दायर तीन अपीलों पर इलाहाबाद हाईकोर्ट में सुनवाई की गई। उन्हें निचली अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। चूंकि, उनमें से एक योगेंद्र की अपील के दौरान मृत्यु हो गई थी, इसलिए उसकी ओर से अपील समाप्त कर दी गई।
कौन है आरोपी -
सभी पांच आरोपियों कल्लू, फूल सिंह, योगेंद्र (अब मृत), हरि और चरण को निचली अदालत ने हत्या का दोषी ठहराया था। हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के दोष सिद्धि के फैसले में कोई कमी नहीं पाई। जब अदालत के सामने सजा की छूट के लिए प्रार्थना की गई तो कोर्ट ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-28 को ध्यान में रखा, जो न्यायालय को कानून द्वारा अधिकृत सजा को लागू करने का अधिकार देती है।