वाराणसी,21 मई। काशी में चायमिजाज की बात ही निराली है। अस्सी घाट पर पप्पू की चाय पूरे शहर में मशहूर है। दुकान कई दशकों पुरानी है। चाय के मालिक बताते हैं कि यह दुकान द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रखी गई थी।
तुम पूनम मैं अमावस तुम कुल्हड़ वाली चाय मैं बनारस...। कतार में सजी दर्जनों गिलासों में एक साथ चाय का अर्क टपकाना और उसके बाद कलछुल से उसमें दूध और चीनी मिलाना। एक खास स्टाइल में तैयार चाय में चम्मच खड़काना... पूरी प्रकिया में एक रिदम है। यह नजरों को भी बांधती है। साध्य को साधती है। कुछ ऐसी है अस्सी पर पप्पू की चाय की अड़ी। अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस पर हम आपको रूबरू कराते हैं काशी की चायमिजाजी से।
अस्सी की चाय दुकानों पर आबाद अनूठे बौद्धिक द्वीपों की अहमियत काफी पहले से रही है। यह वह स्थान है, जहां कभी डॉ. राममनोहर लोहिया, राजनारायण से लेकर डॉ. नामवर सिंह और सुदामा पांडेय धूमिल जैसे देश के अग्रणी राजनीतिक व साहित्यिक विचारकों की उपस्थिति हुआ करती थी। इनके स्वरूप और महत्व को काशीनाथ सिंह ने अपने बहुचर्चित उपन्यास काशी का अस्सी में सविस्तार चित्रित किया और दुनिया के सामने पहली बार व्यापक रूप में पेश किया। इस पर बनी फिल्म मोहल्ला अस्सी ने इसे और ज्यादा जनविस्तार दिया।
काशी का अस्सी में पप्पू की अड़ी का वर्णन करते हुए डॉ. काशीनाथ सिंह ने लिखा है कि आज के अक्खड़ी मिजाज वाले शहर बनारस के साल 1918 में भी, जब काशी के ब्राह्मण चाय को चाह कहते और अंग्रेजों का पेय होने के कारण पीने से परहेज करते थे, यह उनके घर चुपके से जाने लगी। ये जलवा है भारत में चाय का।
सोनभद्र से आए थे पप्पू के पुरखे
अस्सी की चाय की अड़ी की शुरुआत करने वाले मूलत: काशी से नहीं थे। आठवीं पास पप्पू का नाम विश्वनाथ सिंह है। उनके बाबा गणेश सोनभद्र से आए थे। पप्पू की चाय का जादू देसी ही नहीं, विदेशियों की जबान पर भी छाया है। इमरजेंसी के बाद उनकी ही अड़ी में जार्ज फर्नांडिस ने दो घंटे प्रेस कांफ्रेंस की थी।
बेहद खास है पप्पू की चाय
बनारसी कहते हैं कि चाय पिलाने के अंग्रेजी तरीके का भारतीय संस्करण होने के नाते लोग इसे पसंद करने लगे। पप्पू के यहां गर्म पानी और चाय पत्ती को मिलाकर पेय अलग से तैयार रहता है, इसे लीकर बोला जाता है, जिसे गिलासों में पहले से पड़े दूध, चीनी या नींबू में डाला जाता है।