भूपेन हज़ारिका उन कलाकारों में से एक हैं जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व से लोक संस्कृति की एक अलग सुगंध उठती है। भूपेन के गीतों को सुनिए तो लगता है कि धीमी आंच पर असमिया चाय उबल रही है और अपनी मीठी महक से पूरे वातावरण को सुगंधित कर रही है। उनका गीत-संगीत लोक संस्कृति, लोक संगीत, सभ्यता, इतिहास, मानवता और प्रकृति की तमाम परिधियों को अनायास स्पर्श करता हुआ दिखता है।ब्रह्मपुत्र नदी की घाटियों से निकलकर डॉ. भूपेन हजारिका ने गंगा किनारे बसने वाले लोगों की पीड़ा को कालजयी रचना (ओ गंगा बहती हो क्यों) में ढाल दिया। यह गीत आज भी गंगा किनारे बसे हर नगर की व्यथा को व्यक्त करता है।
असम के सादिया में जन्में (8 सितंबर,1926) डॉ. भूपेन हजारिका की आज 95वीं जयंती देश भर में मनाई जा रही है। असमिया संगीत के पुरोधा और भारतरत्न हजारिका के जीवन के 2 सबसे अहम मोड़ काशी हिंदू विश्वविद्यालय से भी जुड़े हैं। एक तो यह कि वह गुवाहाटी से असमिया संगीत को पीछे छोड़कर पॉलिटिकल सांइस की पढ़ाई करने काशी आए। मगर यहां पॉलिटिकल साइंस की कक्षा करते-करते हजारिका को काशी की पारंपरिक और शास्त्रीय संगीत ने फिर से मोह लिया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय ही वह जगह था जहां से उन्हें संगीत की दुनिया में दोबारा से पदार्पण करने का अवसर मिला।
पॉलिटिकल साइंस से संगीत तक का सफर-
BHU में राजनीति विज्ञान विभाग के रिटायर्ड आचार्य प्रोफेसर आर पी पाठक बताते हैं कि उनके संगीत में समाज की पीड़ा का भाव काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पड़ा। यहां के स्कूल ऑफ आर्ट में पॉलिटिकल सांइस की कक्षा करके सीधे ओंकार नाथ ठाकुर के बनाए संगीत कॉलेज के चबूतरे पर पूरा दिन गुजारते थे। वहां से आ रही संगीत की धुन में उन्होंने राजनीति विज्ञान के सिद्धांतों और सामाजिक मूल्यों को लागू करना शुरू कर दिया।
BHU के महापुरषों ने दिखाई राह-
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व विशेष कार्याधिकारी डॉ. विश्वनाथ पांडेय बताते हैं कि BHU के महान शिक्षकों ने उन्हें राह दिखाई। बनारस में उन्हें प्रख्यात तबला वादक पंडित किशन महराज के चाचा कंठे महराज का साथ मिला। इसके बाद वह संगीत की दुनिया में रम गए। वहीं साथ में विश्वविद्यालय के परिसर का सबसे अधिक प्रभाव तो उनके व्यक्तित्व पर पड़ा। महामना पंडित मदन मोहन मालवीय, ओंकारनाथ ठाकुर, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, आचार्य नरेंद्र देव और चंद्रशेखर जैसे महान राजनीतिज्ञों के विचारों की छाप पड़ी। इन विचारों का प्रभाव प्रत्यक्ष तौर पर उनके संगीत पर पड़ा। वह अपने जीवन काल में BHU के लोगों से हमेशा जुड़े रहे।
BHU में रह कर गए कई गीत-
यहां पर रहकर 1943 में आनंदराम दास के रचित 4 गीतों को उन्होंने अपनी आवाज दी। इसमें ओ बांछै मरो लागे तात, स्मृतिर बुकुत थाई जाम मोर, तुमिये गोवाला प्रिया गान और मोरे ओरे जीवन करि ज्वलकला जैसे गीत शामिल हैं। इन सभी में समाज का दर्द दिखा और हजारिका की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी। अपने कुलपतित्व काल में खुद डाॅ. राधाकृष्णन BHU में हजारिका के सुर के प्रशंसक रहे।
कैसे तय हुआ BHU का सफर-
सामाजिक विज्ञान संकाय के डीन प्रो. कौशल किशाेर मिश्रा बताते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान असम में ब्रह्मपुत्र की घाटियों में अशांति फैल चुकी थी। इससे तंग आकर उनके पिता ने हजारिका को काशी हिंदू विश्वविद्यालय में एडमिशन दिला दिया। उससे पहले भूपेन हजारिका ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों और अंग्रेजी सेना के संघर्षों को अखबारों की प्रतियों में पढ़ रखा था। जब वह यहां वर्ष 1942 में आए तो उनके भीतर उच्च शिक्षा और संगीत के साथ ही स्वतंत्रता की लड़ाई और राष्ट्रवाद के विचारों का सूत्रपात भी हुआ। वह 1942 में गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज से इंटरमीडिएट करने के बाद 1946 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय आए। यहां से बीए और एमए की डिग्री हासिल करने के बाद वह 1946 में मास कम्युनिकेशन में PhD करने यूनिवर्सिटी ऑफ कोलंबिया चले गए। 1949 में PhD की उपाधि मिलने के बाद वह भारत आ गए और संगीत की दुनिया में स्वयं को समर्पित कर दिया।
रिपोर्ट: सुदीप राज