वाराणसी। नवरात्रि के तीसरे दिन मां चंद्रघंटा की पूजा अर्चना की जाती हैं। काशी में माँ चंद्रघंटा का मन्दिर चौक क्षेत्र में स्थित हैं। जहाँ मां अपने दिव्य स्वरूप के साथ विराजती है। माँ के इस स्वरूप में गले में चन्द्रमा है। कहा जाता है कि माता के घण्टे की आवाज सुनकर असुरों में भय का माहौल व्याप्त हो जाता हैं। इसलिए जब असुरो के बढ़ते प्रभाव से देवता त्रस्त हो गए तो असुरो का नाश करने के लिए देवी माँ चन्द्र घंटा के रूप में अवतरित हुई और असुरो का संहार कर माँ ने देवताओं के संकट को दूर दिया।
ऐसी भी मान्यता है कि माता के दर्शन पूजन से सभी कष्ट दूर होते है। इसी मान्यता के अनुसार आज यहाँ नवरात्रि के तीसरे दिन भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है। सभी ने कतारबद्ध होकर माता को चढ़ावा स्वरूप यहाँ लाल चुनरी, फूल माला नारियल चढ़ाकर अपने कष्टों को दूर करने की कामना की।
मां चंद्रघंटा को दूध से बनी चीजों का भोग लगाया जाता है, मां को केसर की खीर और दूध से बनी मिठाई का भोग लगाना चाहिए। पंचामृत, चीनी व मिश्री भी मां को अर्पित करनी चाहिए।
ये है मंत्र:-
पिण्डजप्रवरारूढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता।।
या देवी सर्वभूतेषु माँ चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥
कैसा होता है माँ चंद्रघंटा का स्वरूप:
माता का तीसरा रूप मां चंद्रघंटा शेर पर सवार हैं। दसों हाथों में कमल और कमडंल के अलावा अस्त-शस्त्र हैं। माथे पर बना आधा चांद इनकी पहचान है। इस अर्ध चांद की वजह के इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है।
यह देवी पार्वती का विवाहित रूप है। भगवान शिव से शादी करने के बाद देवी महागौरी ने अर्ध चंद्र से अपने माथे को सजाना प्रारंभ कर दिया और जिसके कारण देवी पार्वती को देवी चंद्रघंटा के रूप में जाना जाता है। वह अपने माथे पर अर्ध-गोलाकार चंद्रमा धारण किए हुए हैं। उनके माथे पर यह अर्ध चाँद घंटा के समान प्रतीत होता है, अतः माता के इस रूप को माता चंद्रघंटा के नाम से जाना जाता है।