दिसंबर 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में मोहनदास करमचंद गांधी ने भाग लिया। इसी आयोजन में उनकी मुलाकात एक ऐसे शख्स से हुई जिसने उनकी राजनीति की दिशा बदलकर रख दी। इस सीधे-सादे लेकिन जिद्दी शख्स ने उन्हें अपने इलाके के किसानों की पीड़ा और अंग्रेजों द्वारा उनके शोषण की दास्तान बताई और उनसे इसे दूर करने का आग्रह किया।
गांधी पहली मुलाकात में इस शख्स से प्रभावित नहीं हुए थे और यही वजह थी कि उन्होंने उसे टाल दिया। लेकिन इस कम-पढ़े लिखे और जिद्दी किसान ने उनसे बार-बार मिलकर उन्हें अपना आग्रह मानने को बाध्य कर दिया। परिणाम यह हुआ कि चार महीने बाद ही चंपारण के किसानों को जबरदस्ती नील की खेती करने से हमेशा के लिए मुक्ति मिल गई। गांधी को इतनी जल्दी सफलता का भरोसा न था। इस तरह गांधी का बिहार और चंपारण से नाता हमेशा-हमेशा के लिए जुड़ गया। उन्हें चंपारण लाने वाले इस शख्स का नाम था राजकुमार शुक्ल।
चंपारण का किसान आंदोलन अप्रैल 1917 में हुआ था. गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह और अहिंसा के अपने आजमाए हुए अस्र का भारत में पहला प्रयोग चंपारण की धरती पर ही किया। यहीं उन्होंने यह भी तय किया कि वे आगे से केवल एक कपड़े पर ही गुजर-बसर करेंगे। इसी आंदोलन के बाद रविंद्रनाथ टैगोर ने उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि से विभूषित किया।
3 कठिया पद्धति से दिलाई थी निज़ात:-
चंपारण बिहार के पश्चिमोत्तर इलाके में आता है। इसकी सीमाएं नेपाल से सटती हैं। यहां पर उस समय अंग्रेजों ने व्यवस्था कर रखी थी कि हर बीघे में तीन कट्ठे जमीन (3/20भाग) पर नील की खेती किसानों को करनी ही होगी। पूरे देश में बंगाल के अलावा यहीं पर नील की खेती होती थी। किसानों को इस बेवजह की मेहनत के बदले में कुछ भी नहीं मिलता था, और तो और उन पर कुल 42 तरह के अजीब-से कर डाले गए थे। राजकुमार शुक्ल इलाके के एक समृद्ध किसान थे, उन्होंने शोषण की इस व्यवस्था का पुरजोर विरोध किया, जिसके एवज में उन्हें कई बार अंग्रेजों के कोड़े और प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा। जब उनके काफी प्रयास करने के बाद भी कुछ न हुआ तो उन्होंने बाल गंगाधर तिलक को बुलाने के लिए कांग्रेस के लखनऊ कांग्रेस में जाने का फैसला लिया, लेकिन वहां जाने पर उन्हें गांधी जी को जोड़ने का सुझाव मिला और वे उनके पीछे लग गए।
बहुत काटे चक्कर तब जाके तैयार हुए गांधी जी:-
गांधी जी को इस आंदोलन में सम्मिलित करने के लिए राजकुमार शुक्ला ने बड़े प्रयास किए, वे गांधीजी के पीछे अधिवेशन से अधिवेशन घूमते रहे अंतत: गांधी जी माने और 10 अप्रैल को दोनों जन कलकत्ता से पटना पहुंचे।इस सम्बंध में वे लिखतें हैं कि, ‘रास्ते में ही मुझे समझ में आ गया था कि ये जनाब बड़े सरल इंसान हैं और आगे का रास्ता मुझे अपने तरीके से तय करना होगा।’
पटना के बाद अगले दिन वे दोनों मुजफ्फरपुर पहुंचे। वहां पर अगले सुबह उनका स्वागत मुजफ्फरपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और बाद में कांग्रेस के अध्यक्ष बने जेबी कृपलानी और उनके छात्रों ने किया। शुक्ल जी ने यहां गांधी जी को छोड़कर चंपारण का रुख किया, ताकि उनके वहां जाने से पहले सारी तैयारियां पूरी की जा सकें। मुजफ्फरपुर में ही गांधी से राजेंद्र प्रसाद की पहली मुलाकात हुई। यहीं पर उन्होंने राज्य के कई बड़े वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहयोग से आगे की रणनीति तय की।
और झुक गई अंग्रेजी हुकूमत:-
इसके बाद कमिश्नर की अनुमति न मिलने पर भी महात्मा गांधी ने 15 अप्रैल को चंपारण की धरती पर अपना पहला कदम रखा। यहां उन्हें राजकुमार शुक्ल जैसे कई किसानों का भरपूर सहयोग मिला। पीड़ित किसानों के बयानों को कलमबद्ध किया गया। बिना कांग्रेस का प्रत्यक्ष साथ लिए हुए यह लड़ाई अहिंसक तरीके से लड़ी गई। इसकी वहां के अखबारों में भरपूर चर्चा हुई जिससे आंदोलन को जनता का खूब साथ मिला। इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी सरकार को झुकना पड़ा। इस तरह यहां पिछले 135 सालों से चली आ रही नील की खेती धीरे-धीरे बंद हो गई। साथ ही नीलहे किसानों का शोषण भी हमेशा के लिए खत्म हो गया।
चंपारण का यह सत्याग्रह महात्मा गांधी के जीवन का प्रथम सफल आंदोलन रहा और इसी सफलता को देखते हुए रविंद्र नाथ टैगोर ने इन्हें महात्मा की उपाधि दे दी हालांकि महात्मा की उपाधि सर्वप्रथम डॉक्टर प्राणजीवन मेहता ने दी थी पर इस उपाधि को प्रसिद्धि तब मिली जब रविंद्र नाथ टैगोर ने इन्हें महात्मा कहा। इसी घटना के बाद से महात्मा गांधी की जीवन में सत्याग्रहों की ऐसी शुरुआत हुई जो आजादी तक चलती ही गई।